आवारा

मेरी कुछ आवारा नज़्में घूमतीं है दिनभर, धुत्त लड़खड़ाती

जैसे पुरानी दिल्ली का रिक्शेवाला कोई सवारी ढूँढता हो

कोई ग़ज़ल मिल जाए कहीं

किसी बुढ़िया के चश्मे से झाँकती

या किसी तंग गली में बच्चों संग सरपट दौड़ लगाती

या फिर किसी पुरानी ढोलक पर पैर पटकती

शायद किसी चाय के प्याले में ख़्वाब सुलगाती

ग़ज़ल भी तो नज़्म ही है, अवारगर्दी फ़ितरत है उसकी

वो माँ

सिमट कर ख़ुद ही में बिखर गई होगी

उस रोज़ जो अपने घर गई होगी

ऊँगली पकड़ने वाले ने हाथ दिखाए हैं

रूह सुलगी होगी साँसे भर गई होंगी

वो माँ जिसने इक “बेटे” के लिए, कई नन्ही चीख़ें जलाईं

अपने ही चिराग़ की रोशनी से डर गई होगी

रात

चाँद के पौधे पे रात उग आयी है

आओ अब ये दिन बुझाते हैं

हो जिसके किनारे आसमान टहलते

बारिशें बाँध के वो समन्दर उड़ाते हैं

मुद्दत हुई ये ख़ामोशियाँ शिकन ओढ़े बैठी हैं

कोई बात करते हैं, कुछ बात बनाते हैं

रात से बिछड़कर सुबह फिर से रोने लगी

ओस के बिस्तर पर फिर एक शाम बिछाते हैं

हवा

पसंद नही आती तुम्हें अब नादानियाँ मेरी

अपने बड़प्पन की कोई दवा तो करो

कई बस्तियाँ वीरान की है इस छोटे दीये ने

आज़मा लो, ज़रा तुम हवा तो करो

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