जब कुछ नहीं कमाया तब लम्हे कमाए हैं
तन्हाई में फिर ख़ूब उड़ाए हैं
जब कुछ नहीं कमाया तब लम्हे कमाए हैं
तन्हाई में फिर ख़ूब उड़ाए हैं
बचपन की गुल्लके, जवानी के सपने सारे तोड़ कर भी
ये बड़े होने का क़र्ज़ नहीं उतरता
भरोसा बिखरने की आवाज़ भी नहीं होती
ग़ज़ब अन्दाज़ से गिरते हैं गिरने वाले
सिमट कर ख़ुद ही में बिखर गई होगी
उस रोज़ जो अपने घर गई होगी
ऊँगली पकड़ने वाले ने हाथ दिखाए हैं
रूह सुलगी होगी साँसे भर गई होंगी
वो माँ जिसने इक “बेटे” के लिए, कई नन्ही चीख़ें जलाईं
अपने ही चिराग़ की रोशनी से डर गई होगी
रेत से समंदर की दोस्ती यूँ ही तो नहीं
लिख कर मिटा देना ही जीने का सलीक़ा है
वो जिन राहों से गुज़री होगी
उन पर भी क्या गुज़री होगी
चाँद के पौधे पे रात उग आयी है
आओ अब ये दिन बुझाते हैं
हो जिसके किनारे आसमान टहलते
बारिशें बाँध के वो समन्दर उड़ाते हैं
मुद्दत हुई ये ख़ामोशियाँ शिकन ओढ़े बैठी हैं
कोई बात करते हैं, कुछ बात बनाते हैं
रात से बिछड़कर सुबह फिर से रोने लगी
ओस के बिस्तर पर फिर एक शाम बिछाते हैं
इश्क़ जो करा कीजे
ख़ुद से डरा कीजे
हर साँस लहू पीकर
हर ज़ख़्म हरा कीजे
ज़िंदा रहने को ज़रूरी है
आप हर रोज़ मरा कीजे
पसंद नही आती तुम्हें अब नादानियाँ मेरी
अपने बड़प्पन की कोई दवा तो करो
कई बस्तियाँ वीरान की है इस छोटे दीये ने
आज़मा लो, ज़रा तुम हवा तो करो
कुछ नज़्में उधार ली गयीं कुछ नज़्में उधार दी गयीं
ये उम्रें बस ऐसे ही गुज़ार दी गयी
वो जो सपने भुला देने की नसीहत थी ज़माने की
अफ़सोस की वो बेकार ही गयी
उड़ान तो देखो ज़रा हुंकारें भरने वालों की
बारिशों के मौसम में पतंगे उतार ली गयी
उलझे उलझे रसतो से गुज़रे तो क्या हुआ
हुआ यूँ की ज़िंदगी सँवार ली गयी