वो माँ

सिमट कर ख़ुद ही में बिखर गई होगी

उस रोज़ जो अपने घर गई होगी

ऊँगली पकड़ने वाले ने हाथ दिखाए हैं

रूह सुलगी होगी साँसे भर गई होंगी

वो माँ जिसने इक “बेटे” के लिए, कई नन्ही चीख़ें जलाईं

अपने ही चिराग़ की रोशनी से डर गई होगी

रात

चाँद के पौधे पे रात उग आयी है

आओ अब ये दिन बुझाते हैं

हो जिसके किनारे आसमान टहलते

बारिशें बाँध के वो समन्दर उड़ाते हैं

मुद्दत हुई ये ख़ामोशियाँ शिकन ओढ़े बैठी हैं

कोई बात करते हैं, कुछ बात बनाते हैं

रात से बिछड़कर सुबह फिर से रोने लगी

ओस के बिस्तर पर फिर एक शाम बिछाते हैं

हवा

पसंद नही आती तुम्हें अब नादानियाँ मेरी

अपने बड़प्पन की कोई दवा तो करो

कई बस्तियाँ वीरान की है इस छोटे दीये ने

आज़मा लो, ज़रा तुम हवा तो करो

पतंगे

कुछ नज़्में उधार ली गयीं कुछ नज़्में उधार दी गयीं

ये उम्रें बस ऐसे ही गुज़ार दी गयी

वो जो सपने भुला देने की नसीहत थी ज़माने की

अफ़सोस की वो बेकार ही गयी

उड़ान तो देखो ज़रा हुंकारें भरने वालों की

बारिशों के मौसम में पतंगे उतार ली गयी

उलझे उलझे रसतो से गुज़रे तो क्या हुआ

हुआ यूँ की ज़िंदगी सँवार ली गयी

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