पर कतर लो आसमाँ के, उड़ती पतंगो को हवा ना दो
ये शहर बीमार है बहुत, अब और इसे दवा ना दो
पर कतर लो आसमाँ के, उड़ती पतंगो को हवा ना दो
ये शहर बीमार है बहुत, अब और इसे दवा ना दो
क्या बात है की अब मुझको
ख़्वाबों में भी नींद नहीं आती
कई पतझड़ चला हुँ नंगे पाँव यक्सर
लोगों को लगता है कि मैं बहारों में उठा
चुप रहना मेरा जमाने को नापसंद आया
आवाज़ बुलंद करी तो मैं अशआरों (लफ़्ज़ों)से उठा
मुर्दों से भी सिर्फ़ माँगने आते है लोग
बात तब की है जब मैं मज़ारों से उठा
राख होने का मेरे बहुत यक़ीन था सबको
मैं वही शोला हूँ जो शरारों (चिंगरीयों) से उठा
उगने लगीं हैं दिल पे फिर यादें तेरी
इक बार फिर से मुझे पतझड़ का इंतज़ार है
फैलती जा रही है बीमारी ये भी
हर कोई अपने को डॉक्टर समझता है
गिर के फिर फिसलने का रिवाज होना चाहिए
इश्क़ के हर मर्ज़ (बीमारी) का इलाज होना चाहिए
मैं तुम से रूठता हुँ तो तुम भी रूठने लगते हो
तुम्हारा अपना भी तो कोई अन्दाज़ होना चाहिए
मोहब्बत अलग बात है और दीन अलग
राज जो कहोगे मुझसे वो राज होना चाहिए
चिंगरियाँ कभी राख होतीं हैं कभी शोला
अंजाम-ए-बग़ावत कुछ भी हो आग़ाज़ (आरम्भ) होना चाहिए
Those lovely smoked eyes
they shine with love, trickle with despair
And agony and life
they strip conscience, they hold it
Those naked eyes, they bloom and squint
are more human
than the bony sockets they behold
Those lovely smoked eyes…
वो आग कबकि बुझ चुकी
धुएँ से जल रहा हुँ मैं
अब कुछ नए से फ़रेब ढूंढ़ता हुँ
दोस्त बदल रहा हुँ मैं
सर्द रातों की ये सुलगती सी भूख
सपने निगल रहा हुँ मैं
ये सब धुँधला सा क्यूँ नज़र आता है
क्या फिर संभल रहा हुँ मैं
मेरी कुछ आवारा नज़्में घूमतीं है दिनभर, धुत्त लड़खड़ाती
जैसे पुरानी दिल्ली का रिक्शेवाला कोई सवारी ढूँढता हो
कोई ग़ज़ल मिल जाए कहीं
किसी बुढ़िया के चश्मे से झाँकती
या किसी तंग गली में बच्चों संग सरपट दौड़ लगाती
या फिर किसी पुरानी ढोलक पर पैर पटकती
शायद किसी चाय के प्याले में ख़्वाब सुलगाती
ग़ज़ल भी तो नज़्म ही है, अवारगर्दी फ़ितरत है उसकी
जब कुछ नहीं कमाया तब लम्हे कमाए हैं
तन्हाई में फिर ख़ूब उड़ाए हैं