Ahistaa Ahistaa….

ज़िन्दगी से जो चमक ली थी उधार लड़खपन में
लौटा रहा हूँ अब वापिस, आहिस्ता आहिस्ता

सूरज मिलता नहीं मुझसे अब बहुत दिन हुए
रात करवटों में गुज़र जाती है अक्सर, आहिस्ता आहिस्ता

गया वो दौर की रिश्ते सँभालने, पिरोने पड़ते थे
आसान किश्तों में अब बिकता है प्यार, आहिस्ता आहिस्ता

बस कुछ झूठ हैं मेरे जो अब फल फूल रहे हैं
सच तो सारे दम तोड़ चुके हैं यहां,आहिस्ता आहिस्ता

कहानी

आज आँखों से बह गयी वो कहानी
जिसे कुछ सदियों से छुपाये हुए था

यूँ कौनसी शाम गुज़री उस रात की गोद मे
रो पड़ा वो ज़ख्म जिसे बरसों से बहलाये हुए था

अब हर सुबह लगती है वो ख्वाब की जिसमे
चाँद सूरज को गले लगाए हुए था

उसकी आँखों से बहती थी बहुत ग़ज़लें
शायद किसी शायर से दिल लगाए हुए था

Nai subah

ये मौसम अचानक क्यों बदलने लगे
यूँ अमीरों के घर कबसे जलने लगे

ये कैसी हवा चली रवानी से
परिंदे अपने पर कतरने लगे

रंग उतर गए सफेदपोशों के
चंद कागज़ जब से रंग बदलने लगे

आसमान थे जितने, अपने चाँद तारों के साथ
आज ज़मीन पर क्यों उतरने लगे

रात तो सब ठीक था, शीशे के घरोंदों में
सुबह होते ही ये खिड़कियों पे परदे क्यों लगने लगे

Keemat

लोग नहीं जानते मेरी कीमत अभी
जो बिखरा पड़ा हूँ कोई उठाता नहीं

किसका घर जला है यहाँ, किसने राख मल ली है
कोई पूछता नहीं, मैं बताता नहीं

कुछ राज़ अपने, अपनों से कह दिए थे कभी
बस उस दिन से बातें में खुद को भी बताता नहीं

हाथ में खंजर से कुछ लकीरें जड़ दी हैं
जिसने लिख दी हैं, वो मिटाता नहीं

हवाओं की छत पर परिंदे शोर करने लगे हैं ‘शिव’
आदम तो बहुत हैं, इंसान कोई नज़र आता नहीं

प्रजातंत्र

सूरज छिपे तो रात बता देता है
वक़्त आदमी की औकात बता देता है

असली चेहरे यहाँ नज़र नहीं आते लोगों के
वरना चेहरा तो हर एक बात बता देता है

प्रजातंत्र ने आँखें बंद कर ली हैं शायद आजकल
वरना कोण भरी दोपहर को रात बता देता है

लहू रो कर उठी हैं कुछ माएँ सरहदों पर
तिरंगा ओढ़ के कफ़न में कोई अपनी जात बता देता है

Loan

मुझपर लोन हैं ज़िन्दगी का,
EMI ख्वाहिशों की मीलों की कतार में है
हर नए रिश्ते, नए त्यौहार से
मेरी जेबों में छाले पड़ते हैं
इंसान को अच्छा नहीं महँगा लगना चाहिए
समझ आ गया है अब
बालों में चांदी है सफ़ेद
रातों से सोना गायब है
क़र्ज़ जीने का चुकाता हूँ ,
मुझपर लोन है ज़िन्दगी का

शहर

ना यहाँ लोग कांच के, न दिल ये पत्थर का,

इस शहर में अब जी लगाना क्या

 

यहां मौसम भी आदमी सा रंग बदलता है

ऐतबार कैसा, कौनसी उम्मीद, हँसना कैसा, रुलाना क्या

 

सुर्ख आँखें भीगी सी, लब सूखे हुए

सब समझ आ रहा है, अब और समझाना क्या

 

कागज़ के फूल घर में, पेड़ों की लाश बाहर

ज़हर खा गया है ये ज़माना क्या

 

चिंगारियां उठी हैं तो शोले उड़ेंगे,

इस आग से अब यार घबराना क्या

 

बदमिजाज दोस्त, खुशमिज़ाज दुश्मन

बिन पिए “शिव” लड़खड़ाना क्या

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