फ़रिश्ते

काग़ज़ की नाव है 

पत्थर के फ़रिश्ते हैं 

हम बिकाऊ तो नहीं हैं पर 

हर मोड़ पर हम बिकते हैं 

जहां दरारें ना भरी जाएँ यकलख़्त

वो रिश्ते कहाँ टिकते हैं 

वहाँ तदबीर टूट जाती हैं 

जहां तासीर हम लिखते हैं 

तुझको चलना होगा

रात को घेर लिया है बादलों ने
चाँद को मगर निकलना होगा
तुझको चलना होगा

संघर्ष जलाकर कुंदन कर देता है
इस मोम के आगे आग को पिघलना होगा
तुझको चलना होगा

दिन को धकेलकर सूरज आगे बढ़ता है
इस शाम के आगे मगर सूरज को ढलना होगा
तुझको चलना होगा

जीवन मंथन में सुर भी हैं असुर भी
अमृतपान के लिए पहले विष निगलना होगा
तुझको चलना होगा

पियूष कौशल

पर्दा

वक़्त के साथ हथेली पर चढ़ गया है एक सफ़ेद पर्दा
दिन रात खुद से आंखें बचाकर इस पर उंगलियां घुमाता हूँ
मानो कोई जादू ही है, ये रहा शर्मा और वो अख्तर…
मिलाता सबसे है पर मिलने किसी से नहीं देता
वो जो किस्से कहानियां होती थी हर शाम सुनने सुनाने को
आजकल बड़ी जल्दी में रहती है, टाइम लाइन से होकर बड़ी तपाक से गुजर जाती है
बुआ, चाचा, मामा सब यहीं हैं इन हाथों में – ऐंठे से मुस्कुराते अपनी फोटो से
यादें मगर कुछ गमगीन नज़र आती हैं
इस सफ़ेद परदे की काली करतूतें रंगीन नज़र आती हैं

पियूष कौशल

ज़रा संभल के

जहन में न सही नज़र में रखो
हम धूप के पंछी हैं हमें न शजर (छाँव) में रखो

हमने तो उम्र भर बहुत दोस्त कमाए हैं, दुश्मन भी
तुम ये वसीयत, ये दौलतें अपनी कब्र में रखो

हम अंधेरों के जुगनू हैं, और वो भी दिलजले
तुम ये सारे आफ़ताब (चाँद) अपने घर में रखो

सब्र में तो उम्र पूरी कट गयी हमारी
तुम हमारा नाम अब बेसब्र में रखो

भरोसा एक बर्फीली सड़क है, याद रहे
नीयत के पाँव ज़रा संभल के रखो

पियूष कौशल

आंच

तुम भी चढ़ाकर देखो अपने से किसी रिश्ते को
मतलब की आंच पर,
हमने अच्छे अच्छों को वहां रंग बदलते देखा है…

                                                               पियूष कौशल

गहरा कोहरा है

गहरा कोहरा है
नुक्कड़ वाले मोड़ पर आज भी बैठी है वो बुढ़िया,
खाली आँखों से आसमान टटोलती
हाथों में उसके लकीरे न होंगी शायद
चेहरे पर ही वक़्त ने जैसे नक़्क़ाशी जड़ दी हो
उस चाबी वाले गुड्डे मे चाबी भर मुस्कुराती
दिवाली पर दिलवाया था उसे, बड़ा खुश हुआ था
मेरी अच्छी माँ कहकर खूब ज़ोर से गले लगाया था
वक़्त चाबी भरना भूल गया शायद
वो चलते चलते रुक गया
न कदम उठा न हाथ बढ़ा – अँधेरा हुआ था तब
आज कोहरा है, गहरा कोहरा है

पियूष कौशल (शिव)

कहानी

आज आँखों से बह गयी वो कहानी
जिसे कुछ सदियों से छुपाये हुए था

यूँ कौनसी शाम गुज़री उस रात की गोद मे
रो पड़ा वो ज़ख्म जिसे बरसों से बहलाये हुए था

अब हर सुबह लगती है वो ख्वाब की जिसमे
चाँद सूरज को गले लगाए हुए था

उसकी आँखों से बहती थी बहुत ग़ज़लें
शायद किसी शायर से दिल लगाए हुए था

Loan

मुझपर लोन हैं ज़िन्दगी का,
EMI ख्वाहिशों की मीलों की कतार में है
हर नए रिश्ते, नए त्यौहार से
मेरी जेबों में छाले पड़ते हैं
इंसान को अच्छा नहीं महँगा लगना चाहिए
समझ आ गया है अब
बालों में चांदी है सफ़ेद
रातों से सोना गायब है
क़र्ज़ जीने का चुकाता हूँ ,
मुझपर लोन है ज़िन्दगी का

उम्र का नशा

मुझे उम्र का नशा हुआ है
की कुछ याद नहीं रहता अब
बिन पिए कदम डगमगाते हैं
बच्चो से कुछ मांगना हो
तो ज़बान लड़खड़ाती है

मुझे उम्र का नशा हुआ है

इसी उम्र के नशे में कभी
मैं कुछ अपने भिगो आया था
नई ख्वाहिशों की होड़ में
पुराने हाथ छुड़ा कर भागा था

अब घर जाओ तो लोग
बड़ी लानत से तकते हैं

मुझे उम्र का नशा हुआ है

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