इमारतें बड़ी हो गई है इर्द गिर्द
अब मेरे मकान पे धूप नहीं गिरती
ड्योढ़ी की दरारों पे उग आये है स्याह साये
हाथों से पंखा झलती अब हवा नहीं फिरती
फ़्लाइओवर है, पुल है, हैं चौड़ी चौड़ी सड़कें
घर तक ले जाए हमें जो वो राह नहीं मिलती
ये फ़ाख्ते, कबूतर क्यों चुनते हैं तिनके दिन भर
आँधियों से तो किसी को पनाह नहीं मिलती
कोई सूरत थी जो नज़र नहीं आती थी
ताउम्र निहारता रहा ख़ुद को में
जाने किस मंज़िल का मुंतज़िर रहा
रस्तों में तलाशता रहा ख़ुद को मैं
हर शख़्स में बुराई दिखाईं देती रही
हर किसी में तराशता रहा ख़ुद को मैं
काग़ज़ की नाव है
पत्थर के फ़रिश्ते हैं
हम बिकाऊ तो नहीं हैं पर
हर मोड़ पर हम बिकते हैं
जहां दरारें ना भरी जाएँ यकलख़्त
वो रिश्ते कहाँ टिकते हैं
वहाँ तदबीर टूट जाती हैं
जहां तासीर हम लिखते हैं
टलेगा जब बनवास राम आयेंगे
जब छूटेगी सब आस राम आयेंगे
सागर का कंठ सुखाने को
पतितों को हृदय लगाने को
जब शबरी सी हो आस राम आयेंगे
कीचड़ में कमल खिलाने को
नैया को पार लगाने को
केवट सा हो विश्वास राम आयेंगे
छल कपट द्वेष और अहंकार के आँगन में
जहां सत्य हो करता वास राम आयेंगे
तोल नाप के ग़ज़ल नहीं कहता
समा भाँप के ग़ज़ल नहीं कहता
लय में कहनी की है कोशिश मगर
मैं मीटर नाप के ग़ज़ल नहीं कहता
आप हैं बड़े शायर, लफ़्ज़ बड़े मुश्किल कहते हैं
आप ठीक ही कहतें है मैं ग़ज़ल नहीं कहता
एक और दिन की है बात भैया
चलो सुर से छेड़ें साज़ भैया
उँगलियाँ कीबोर्ड पे पटक पटक
मैनेजर भेजे काज भैया
बातें दे घुमा घुमा, कर भ्रमण भ्रमण
तरक़्क़ी के हैं ये राज़ भैया
रहीमन बैठे मीटिंग में
निकले ना हमरी आवाज़ भैया
शुक्रवार सुमधुर कोयल सा
सोमवार पे बैठा है बाज़ भैया
महफ़िलें रोशन हैं शहर भर
दिलों में है तहख़ाने अब भी
संभलना फ़ितरत नहीं मेरी पर
लोग आये हैं मुझे बहकाने अब भी
मैं वो दरिया हूँ जो प्यासा भी है
मेरी तलाश में है वीराने अब भी
नींद में भी एक खटका सा रहता है
एक ग़ज़ल रहती है मेरे सिरहाने अब भी
नज़र नज़र की बात है नज़र नज़र उतारी गई
बस एक मोहब्बत के नाम पे ना जाने कितनी ग़ज़लें वारी गई
कतरा कतरा पिघला हूँ रोशनी की चाह में
मुझसे ये अँधेरों की उधारी ना उतारी गई
कोई हंस के बोले तो साथ चल देता हूँ
जाने कहाँ अपनी ख़ुद्दारी गई
दश्त-ए-तन्हाई ए हिज्र में खड़ा सोचता हूँ
कहाँ वो यार गये कहाँ वो यारी गई
मुझे अछूत होने का वर दो प्रभु
कोई शबरी अपने राम से मिले
मैला कर न सके अहंकार मुझे
कोई सुदामा अपने श्याम से मिले
कर्मभूमि में कर्म ही धर्म है
मुझे विश्राम न विश्राम में मिले
सूरज बुझते ही दीये खिलने लगते हैं
सुबह का भुला जैसे शाम में मिले
आशा निराशा का ये अन्तर्द्वेन्द परस्पर है
मुझको मोक्ष इस महासंग्राम से मिले
ये औरतें घूँघट वूँघट
हिजाब विज़ाब में रहे तो अच्छा है
ये लड़कियाँ ज़्यादा बोले ना
हिसाब विसाब में रहे तो अच्छा है
ये लक्ष्मीबाई, माँ टेरेसा
किताब विताब में रहे तो अच्छा है
मर्द को ईश्वर मानो, बस मानलो क्यूँकि…
ज़्यादा ना हों सवाल जवाब तो अच्छा है
शर्म है औरत का ही गहना
क़ायम रहे ये नक़ाब तो अच्छा है