रेत से समंदर की दोस्ती यूँ ही तो नहीं
लिख कर मिटा देना ही जीने का सलीक़ा है
रेत से समंदर की दोस्ती यूँ ही तो नहीं
लिख कर मिटा देना ही जीने का सलीक़ा है
कोई सूरत थी जो नज़र नहीं आती थी
ताउम्र निहारता रहा ख़ुद को में
जाने किस मंज़िल का मुंतज़िर रहा
रस्तों में तलाशता रहा ख़ुद को मैं
हर शख़्स में बुराई दिखाईं देती रही
हर किसी में तराशता रहा ख़ुद को मैं
काग़ज़ की नाव है
पत्थर के फ़रिश्ते हैं
हम बिकाऊ तो नहीं हैं पर
हर मोड़ पर हम बिकते हैं
जहां दरारें ना भरी जाएँ यकलख़्त
वो रिश्ते कहाँ टिकते हैं
वहाँ तदबीर टूट जाती हैं
जहां तासीर हम लिखते हैं
तोल नाप के ग़ज़ल नहीं कहता
समा भाँप के ग़ज़ल नहीं कहता
लय में कहनी की है कोशिश मगर
मैं मीटर नाप के ग़ज़ल नहीं कहता
आप हैं बड़े शायर, लफ़्ज़ बड़े मुश्किल कहते हैं
आप ठीक ही कहतें है मैं ग़ज़ल नहीं कहता
I am my own doppelgänger,
wearing different shades of me every day
The genuine sad and the fake happy
The mentally abled and the emotional sappy
I do good self-impressions
so I am told
Which part of me is bought
and which is sold
Nobody would know
nobody will be told
I am my own doppelgänger…
एक और दिन की है बात भैया
चलो सुर से छेड़ें साज़ भैया
उँगलियाँ कीबोर्ड पे पटक पटक
मैनेजर भेजे काज भैया
बातें दे घुमा घुमा, कर भ्रमण भ्रमण
तरक़्क़ी के हैं ये राज़ भैया
रहीमन बैठे मीटिंग में
निकले ना हमरी आवाज़ भैया
शुक्रवार सुमधुर कोयल सा
सोमवार पे बैठा है बाज़ भैया
महफ़िलें रोशन हैं शहर भर
दिलों में है तहख़ाने अब भी
संभलना फ़ितरत नहीं मेरी पर
लोग आये हैं मुझे बहकाने अब भी
मैं वो दरिया हूँ जो प्यासा भी है
मेरी तलाश में है वीराने अब भी
नींद में भी एक खटका सा रहता है
एक ग़ज़ल रहती है मेरे सिरहाने अब भी
नज़र नज़र की बात है नज़र नज़र उतारी गई
बस एक मोहब्बत के नाम पे ना जाने कितनी ग़ज़लें वारी गई
कतरा कतरा पिघला हूँ रोशनी की चाह में
मुझसे ये अँधेरों की उधारी ना उतारी गई
कोई हंस के बोले तो साथ चल देता हूँ
जाने कहाँ अपनी ख़ुद्दारी गई
दश्त-ए-तन्हाई ए हिज्र में खड़ा सोचता हूँ
कहाँ वो यार गये कहाँ वो यारी गई
I woke up with a headache, it was only Wednesday, and the weekend was a little too far. I looked at the clock it was 3 AM – I thanked god for the more sleep and was lurched. Then I heard something. I waived it off thinking it was nothing – but then it grew louder. It sounded distant at first, but then it grew stronger – it seemed to be coming from the living room.
It was the sound of soft growls – something like a dog makes when trying to intimidate an opponent. But wait – I didn’t have a dog!
I tried getting out of my bed – but couldn’t move – it felt like my feet froze, and…my hands as well. As if they were tied to something – I pushed harder and harder, yet I couldn’t move an inch. I could feel the sweat trickling down my ears and my temple drummed like I just ran a marathon.
I yelled for help – but all that came out was a hiss, or not even that. What was it? Or rather who was it? My parents were in the next room – but I couldn’t move – nor could I speak. What was happening to me? Was there someone inside my room- what did he want from me? I was thinking fast and putting out all possible explanations.
A thought shook me – was I dying? Is this what they call a near death experience? I was lying there helpless – for an hour, maybe two – I wasn’t sure. I lost track of time. All I saw was my wall and a sinking feeling came over.
Yes, that was it – It was my end. I thought about my parents, my siblings, my office and about people I won’t say goodbye to. My eyes were burning, and my head was exploding. The song “Voodoo” by the band Godsmack started drumming in my ears.
“Candles raise my desire
Why I’m so far away
No more meaning to my life
No more reason to stay
Freezing feeling
Breathe in, breathe in
I’m coming back again”
And then it went all black…
I found myself in my bed, in my room – again. Was I dead? I checked the clock Wednesday, 3 AM
Was I hallucinating? Was it a nightmare?
Then I heard something. the sound of soft growls – something like a dog makes when… OH SHIT!!!
मुझे अछूत होने का वर दो प्रभु
कोई शबरी अपने राम से मिले
मैला कर न सके अहंकार मुझे
कोई सुदामा अपने श्याम से मिले
कर्मभूमि में कर्म ही धर्म है
मुझे विश्राम न विश्राम में मिले
सूरज बुझते ही दीये खिलने लगते हैं
सुबह का भुला जैसे शाम में मिले
आशा निराशा का ये अन्तर्द्वेन्द परस्पर है
मुझको मोक्ष इस महासंग्राम से मिले