शहर

ना यहाँ लोग कांच के, न दिल ये पत्थर का,

इस शहर में अब जी लगाना क्या

 

यहां मौसम भी आदमी सा रंग बदलता है

ऐतबार कैसा, कौनसी उम्मीद, हँसना कैसा, रुलाना क्या

 

सुर्ख आँखें भीगी सी, लब सूखे हुए

सब समझ आ रहा है, अब और समझाना क्या

 

कागज़ के फूल घर में, पेड़ों की लाश बाहर

ज़हर खा गया है ये ज़माना क्या

 

चिंगारियां उठी हैं तो शोले उड़ेंगे,

इस आग से अब यार घबराना क्या

 

बदमिजाज दोस्त, खुशमिज़ाज दुश्मन

बिन पिए “शिव” लड़खड़ाना क्या

Published by

Piyush Kaushal

Naive and Untamed!

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