बेख़ुदी

वो आग कबकि बुझ चुकी

धुएँ से जल रहा हुँ मैं

अब कुछ नए से फ़रेब ढूंढ़ता हुँ

दोस्त बदल रहा हुँ मैं

सर्द रातों की ये सुलगती सी भूख

सपने निगल रहा हुँ मैं

ये सब धुँधला सा क्यूँ नज़र आता है

क्या फिर संभल रहा हुँ मैं

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