कोई सूरत थी जो नज़र नहीं आती थी
ताउम्र निहारता रहा ख़ुद को में
जाने किस मंज़िल का मुंतज़िर रहा
रस्तों में तलाशता रहा ख़ुद को मैं
हर शख़्स में बुराई दिखाईं देती रही
हर किसी में तराशता रहा ख़ुद को मैं
कोई सूरत थी जो नज़र नहीं आती थी
ताउम्र निहारता रहा ख़ुद को में
जाने किस मंज़िल का मुंतज़िर रहा
रस्तों में तलाशता रहा ख़ुद को मैं
हर शख़्स में बुराई दिखाईं देती रही
हर किसी में तराशता रहा ख़ुद को मैं