उन्वान

मेरी कुछ नज़्में हुईं कुछ अफ़साने हुए
मुझसे बिछड़े जमाने को जमाने हुए

हर सालगिरह पर गिरहें उलझती जाती हैं
हम जितने नए हुए, पुराने हुए

एक ख्वाहिश के हत्थे है एक दीवाना सूली पे
ज़रा गिन के बता तो कितने दीवाने हुए

लहू निचोड़ कर मुस्कुराना पड़ता है
भला ये कैसे रिश्ते निभाने हुए

कभी फुर्सत में हमें मिलने तो आ जिंदगी
बहुत अब तेरे बहाने हुए

पियूष कौशल

वाह रे उपरवाले

पंडित पादरी मौलवी कर रहे धर्म प्रचार
चोर लूटेरे सेवक हैं, नेता पहरेदार
सब जेबें भरन लगे, नोट भयो भरमार
वाह रे उपरवाले तेरी महिमा अपरम पार

पियूष कौशल

गहरा कोहरा है

गहरा कोहरा है
नुक्कड़ वाले मोड़ पर आज भी बैठी है वो बुढ़िया,
खाली आँखों से आसमान टटोलती
हाथों में उसके लकीरे न होंगी शायद
चेहरे पर ही वक़्त ने जैसे नक़्क़ाशी जड़ दी हो
उस चाबी वाले गुड्डे मे चाबी भर मुस्कुराती
दिवाली पर दिलवाया था उसे, बड़ा खुश हुआ था
मेरी अच्छी माँ कहकर खूब ज़ोर से गले लगाया था
वक़्त चाबी भरना भूल गया शायद
वो चलते चलते रुक गया
न कदम उठा न हाथ बढ़ा – अँधेरा हुआ था तब
आज कोहरा है, गहरा कोहरा है

पियूष कौशल (शिव)

Ahistaa Ahistaa….

ज़िन्दगी से जो चमक ली थी उधार लड़खपन में
लौटा रहा हूँ अब वापिस, आहिस्ता आहिस्ता

सूरज मिलता नहीं मुझसे अब बहुत दिन हुए
रात करवटों में गुज़र जाती है अक्सर, आहिस्ता आहिस्ता

गया वो दौर की रिश्ते सँभालने, पिरोने पड़ते थे
आसान किश्तों में अब बिकता है प्यार, आहिस्ता आहिस्ता

बस कुछ झूठ हैं मेरे जो अब फल फूल रहे हैं
सच तो सारे दम तोड़ चुके हैं यहां,आहिस्ता आहिस्ता

कहानी

आज आँखों से बह गयी वो कहानी
जिसे कुछ सदियों से छुपाये हुए था

यूँ कौनसी शाम गुज़री उस रात की गोद मे
रो पड़ा वो ज़ख्म जिसे बरसों से बहलाये हुए था

अब हर सुबह लगती है वो ख्वाब की जिसमे
चाँद सूरज को गले लगाए हुए था

उसकी आँखों से बहती थी बहुत ग़ज़लें
शायद किसी शायर से दिल लगाए हुए था

Nai subah

ये मौसम अचानक क्यों बदलने लगे
यूँ अमीरों के घर कबसे जलने लगे

ये कैसी हवा चली रवानी से
परिंदे अपने पर कतरने लगे

रंग उतर गए सफेदपोशों के
चंद कागज़ जब से रंग बदलने लगे

आसमान थे जितने, अपने चाँद तारों के साथ
आज ज़मीन पर क्यों उतरने लगे

रात तो सब ठीक था, शीशे के घरोंदों में
सुबह होते ही ये खिड़कियों पे परदे क्यों लगने लगे

प्रजातंत्र

सूरज छिपे तो रात बता देता है
वक़्त आदमी की औकात बता देता है

असली चेहरे यहाँ नज़र नहीं आते लोगों के
वरना चेहरा तो हर एक बात बता देता है

प्रजातंत्र ने आँखें बंद कर ली हैं शायद आजकल
वरना कोण भरी दोपहर को रात बता देता है

लहू रो कर उठी हैं कुछ माएँ सरहदों पर
तिरंगा ओढ़ के कफ़न में कोई अपनी जात बता देता है

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