इश्क़ जो करा कीजे
ख़ुद से डरा कीजे
हर साँस लहू पीकर
हर ज़ख़्म हरा कीजे
ज़िंदा रहने को ज़रूरी है
आप हर रोज़ मरा कीजे
इश्क़ जो करा कीजे
ख़ुद से डरा कीजे
हर साँस लहू पीकर
हर ज़ख़्म हरा कीजे
ज़िंदा रहने को ज़रूरी है
आप हर रोज़ मरा कीजे
कुछ ऐसे शय और मात हो गई
इक रोज़ उनसे जो मुलाकात हो गई
पहला मिसरा जिन्दगी, दूसरा तुम
ये शेर मुकम्मल है…
स्टापू खेलते खेलते मस्ती में छपाक से
हड़काते लुढ़काते वक़्त ठेल दिया हमने
दो पैरों वाले को मगर जिन्दगी बोझ लगती है
वक़्त के साथ हथेली पर चढ़ गया है एक सफ़ेद पर्दा
दिन रात खुद से आंखें बचाकर इस पर उंगलियां घुमाता हूँ
मानो कोई जादू ही है, ये रहा शर्मा और वो अख्तर…
मिलाता सबसे है पर मिलने किसी से नहीं देता
वो जो किस्से कहानियां होती थी हर शाम सुनने सुनाने को
आजकल बड़ी जल्दी में रहती है, टाइम लाइन से होकर बड़ी तपाक से गुजर जाती है
बुआ, चाचा, मामा सब यहीं हैं इन हाथों में – ऐंठे से मुस्कुराते अपनी फोटो से
यादें मगर कुछ गमगीन नज़र आती हैं
इस सफ़ेद परदे की काली करतूतें रंगीन नज़र आती हैं
पियूष कौशल
अभी गरीब हुं इसलिए दोस्त हैं मेरे
अमीर होता तो रिश्तेदार होते़़़
पियुष कौशल
तुम भी चढ़ाकर देखो अपने से किसी रिश्ते को
मतलब की आंच पर,
हमने अच्छे अच्छों को वहां रंग बदलते देखा है…
पियूष कौशल
गहरा कोहरा है
नुक्कड़ वाले मोड़ पर आज भी बैठी है वो बुढ़िया,
खाली आँखों से आसमान टटोलती
हाथों में उसके लकीरे न होंगी शायद
चेहरे पर ही वक़्त ने जैसे नक़्क़ाशी जड़ दी हो
उस चाबी वाले गुड्डे मे चाबी भर मुस्कुराती
दिवाली पर दिलवाया था उसे, बड़ा खुश हुआ था
मेरी अच्छी माँ कहकर खूब ज़ोर से गले लगाया था
वक़्त चाबी भरना भूल गया शायद
वो चलते चलते रुक गया
न कदम उठा न हाथ बढ़ा – अँधेरा हुआ था तब
आज कोहरा है, गहरा कोहरा है
पियूष कौशल (शिव)
ज़िन्दगी से जो चमक ली थी उधार लड़खपन में
लौटा रहा हूँ अब वापिस, आहिस्ता आहिस्ता
सूरज मिलता नहीं मुझसे अब बहुत दिन हुए
रात करवटों में गुज़र जाती है अक्सर, आहिस्ता आहिस्ता
गया वो दौर की रिश्ते सँभालने, पिरोने पड़ते थे
आसान किश्तों में अब बिकता है प्यार, आहिस्ता आहिस्ता
बस कुछ झूठ हैं मेरे जो अब फल फूल रहे हैं
सच तो सारे दम तोड़ चुके हैं यहां,आहिस्ता आहिस्ता
आज आँखों से बह गयी वो कहानी
जिसे कुछ सदियों से छुपाये हुए था
यूँ कौनसी शाम गुज़री उस रात की गोद मे
रो पड़ा वो ज़ख्म जिसे बरसों से बहलाये हुए था
अब हर सुबह लगती है वो ख्वाब की जिसमे
चाँद सूरज को गले लगाए हुए था
उसकी आँखों से बहती थी बहुत ग़ज़लें
शायद किसी शायर से दिल लगाए हुए था