चिंगारियों की भीड़ मैं इक शोला उठा
किसी अधूरे गीत सी अंगड़ाई ली
और बेखुदी की ताल में बोला
चलो हवाओं के रुख बदलते हैं
आग बनने की आग दिल में
अपने पीले लहू में रंग भरने चला
चिंगारियां बोली, शोला है तो भड़केगा
थोड़ा जलेगा, और बुझ जायेगा
शोला कुछ कहते-कहते रुक गया
वापिस मुड़ा और जलने लगा
व्यूह रच कर अपने मन में
अग्नि मंथन को चला
चिंगारियों को छेड़कर
वो शोलों को भेदता
अपने आप से लड़ता वो कभी
कभी दर्द को नकारता
चोट खाया अधमरा सा
धुंधली सी मंज़िल के आईने को पोंछकर
अपनी आग को ज़िंदा रखता रहा
उस आग की चाह में
कहीं लौ उठी उम्मीद की
इक लपट बनी, प्रचंड हुई
वो चिंगारियां अब राख थी
ये शोला अब इक आग था