काग़ज़ की नाव है
पत्थर के फ़रिश्ते हैं
हम बिकाऊ तो नहीं हैं पर
हर मोड़ पर हम बिकते हैं
जहां दरारें ना भरी जाएँ यकलख़्त
वो रिश्ते कहाँ टिकते हैं
वहाँ तदबीर टूट जाती हैं
जहां तासीर हम लिखते हैं
काग़ज़ की नाव है
पत्थर के फ़रिश्ते हैं
हम बिकाऊ तो नहीं हैं पर
हर मोड़ पर हम बिकते हैं
जहां दरारें ना भरी जाएँ यकलख़्त
वो रिश्ते कहाँ टिकते हैं
वहाँ तदबीर टूट जाती हैं
जहां तासीर हम लिखते हैं
मेरी कुछ नज़्में हुईं कुछ अफ़साने हुए
मुझसे बिछड़े जमाने को जमाने हुए
हर सालगिरह पर गिरहें उलझती जाती हैं
हम जितने नए हुए, पुराने हुए
एक ख्वाहिश के हत्थे है एक दीवाना सूली पे
ज़रा गिन के बता तो कितने दीवाने हुए
लहू निचोड़ कर मुस्कुराना पड़ता है
भला ये कैसे रिश्ते निभाने हुए
कभी फुर्सत में हमें मिलने तो आ जिंदगी
बहुत अब तेरे बहाने हुए
पियूष कौशल
“गैट लोस्ट” कहा उसने मुझे
खो जाने का भी एक अलग ही मजा है…
पियूष कौशल
तेरे ख्वाब महकते रहे रात भर
मुझे फूल किताबों में मिलते रहे रात भर
आज फिर वही बात हो गई
सुबह ढूंढते ढूंढते रात हो गई
पियूष कौशल
मुझसे ही नज़र आने लगे हो अब तुम मुझे
सच बताओ, सब ठीक तो है ना…
पियूष कौशल
सुबह की पहली किरण ने मेरी आँखें टटोली
कुछ अधूरे सपने अभी भी पलकों पे सो रहे थे
मेरी आँखों ने झूमते हुए बिस्तर को संभाला
उस सिराहने पर ही शायद कोई बादल बरसा था
वो चादर की सलवटें मेरे ख्यालों से रूबरू थीं
कुछ उलझी सी, बेदार सी, बेशर्म सी
आईने में दिख रहा था शख्स वो
वक़्त जिसके बालों में चांदी मल गया था
फिर सोचा यूँ की आज यादों में नहायेंगे जी भर के
वो बक्से जो बंद है सदियों से उनको भी रिहाई देंगे
अपनी आँखों में रख लेंगे मखमल से वो लम्हे
जिन लम्हों की छाँव में आज भी जिंदगी आसान हो जाती है
इक चाय की प्याली तब मेरी नींदों को दस्तक दी
लो मुर्दों का ये काफिला आज फिर से दफ्तर चल दिया
ज़िन्दगी से जो चमक ली थी उधार लड़खपन में
लौटा रहा हूँ अब वापिस, आहिस्ता आहिस्ता
सूरज मिलता नहीं मुझसे अब बहुत दिन हुए
रात करवटों में गुज़र जाती है अक्सर, आहिस्ता आहिस्ता
गया वो दौर की रिश्ते सँभालने, पिरोने पड़ते थे
आसान किश्तों में अब बिकता है प्यार, आहिस्ता आहिस्ता
बस कुछ झूठ हैं मेरे जो अब फल फूल रहे हैं
सच तो सारे दम तोड़ चुके हैं यहां,आहिस्ता आहिस्ता
लोग नहीं जानते मेरी कीमत अभी
जो बिखरा पड़ा हूँ कोई उठाता नहीं
किसका घर जला है यहाँ, किसने राख मल ली है
कोई पूछता नहीं, मैं बताता नहीं
कुछ राज़ अपने, अपनों से कह दिए थे कभी
बस उस दिन से बातें में खुद को भी बताता नहीं
हाथ में खंजर से कुछ लकीरें जड़ दी हैं
जिसने लिख दी हैं, वो मिटाता नहीं
हवाओं की छत पर परिंदे शोर करने लगे हैं ‘शिव’
आदम तो बहुत हैं, इंसान कोई नज़र आता नहीं
नरम से आसमान में लिपटी किसी सुनहरी सुबह सी
जो तुम दबे पाँव मेरे पास आओगी
तो वो क्या ग़ज़ल होगी..
मेरे लफ़्ज़ों की अंगड़ाइयों में, ज़रा आंख मलते मलते
जो वो पुराने वाले गीत गुनगुनाओगी
तो वो क्या ग़ज़ल होगी..
आँखों की झील में मेरी पलकों के किनारे
जो तुम अपने पैरों से पानी उड़ाओगी
तो वो क्या ग़ज़ल होगी..
सोचता हूँ की अब लिख दूँ ये सब शायरी तुम्हे
इसे पढ़कर तुम जो दांतो तले ऊँगली दबाओगी
तो वो क्या ग़ज़ल होगी..