मुझपर लोन हैं ज़िन्दगी का,
EMI ख्वाहिशों की मीलों की कतार में है
हर नए रिश्ते, नए त्यौहार से
मेरी जेबों में छाले पड़ते हैं
इंसान को अच्छा नहीं महँगा लगना चाहिए
समझ आ गया है अब
बालों में चांदी है सफ़ेद
रातों से सोना गायब है
क़र्ज़ जीने का चुकाता हूँ ,
मुझपर लोन है ज़िन्दगी का
Category: मेरी कुछ कवितायेँ
उम्र का नशा
मुझे उम्र का नशा हुआ है
की कुछ याद नहीं रहता अब
बिन पिए कदम डगमगाते हैं
बच्चो से कुछ मांगना हो
तो ज़बान लड़खड़ाती है
मुझे उम्र का नशा हुआ है
इसी उम्र के नशे में कभी
मैं कुछ अपने भिगो आया था
नई ख्वाहिशों की होड़ में
पुराने हाथ छुड़ा कर भागा था
अब घर जाओ तो लोग
बड़ी लानत से तकते हैं
मुझे उम्र का नशा हुआ है
ग़ज़ल…
नरम से आसमान में लिपटी किसी सुनहरी सुबह सी
जो तुम दबे पाँव मेरे पास आओगी
तो वो क्या ग़ज़ल होगी..
मेरे लफ़्ज़ों की अंगड़ाइयों में, ज़रा आंख मलते मलते
जो वो पुराने वाले गीत गुनगुनाओगी
तो वो क्या ग़ज़ल होगी..
आँखों की झील में मेरी पलकों के किनारे
जो तुम अपने पैरों से पानी उड़ाओगी
तो वो क्या ग़ज़ल होगी..
सोचता हूँ की अब लिख दूँ ये सब शायरी तुम्हे
इसे पढ़कर तुम जो दांतो तले ऊँगली दबाओगी
तो वो क्या ग़ज़ल होगी..
शहर
ना यहाँ लोग कांच के, न दिल ये पत्थर का,
इस शहर में अब जी लगाना क्या
यहां मौसम भी आदमी सा रंग बदलता है
ऐतबार कैसा, कौनसी उम्मीद, हँसना कैसा, रुलाना क्या
सुर्ख आँखें भीगी सी, लब सूखे हुए
सब समझ आ रहा है, अब और समझाना क्या
कागज़ के फूल घर में, पेड़ों की लाश बाहर
ज़हर खा गया है ये ज़माना क्या
चिंगारियां उठी हैं तो शोले उड़ेंगे,
इस आग से अब यार घबराना क्या
बदमिजाज दोस्त, खुशमिज़ाज दुश्मन
बिन पिए “शिव” लड़खड़ाना क्या
लफ्ज़
मेरे अश्क का हर एक कतरा इसी पानी में है कहीं
ये मुझसे खुद आती जाती हवाओं ने कहा है
समन्दरों से भी ढूंढ लाते है तिनके वो
आँखों में जूनून का सुरमा जहाँ है
हर लहर के साथ उठती है इक टीस सी दिल में
वो कुरेद के पूछता हैं मुझे की ज़ख्म कहाँ है
कहता है वो की जानता है सब कुछ
सच बोल तो दूँ, पर और लफ्ज़ कहाँ है
बस शिव ही शिव है
इस शब्द से उस अर्थ तक
जीवन के हर भावार्थ तक
बस शिव ही शिव है
मेरे अहम् के तथ्य तक
मेरी आत्मा के सत्य तक
बस शिव ही शिव है
उस सूर्य से इस आग तक
इस शरीर से उस राख तक
बस शिव ही शिव है
हर मंत्र से हर वेद तक
अज्ञान से सम्वेद तक
बस शिव ही शिव है
मेरी आस्था की नींव तक
मेरी कुण्डलिनी जीव तक
बस शिव ही शिव है
मैं व्यर्थ हर इक सांस तक
तेरे चरण हैं मेरा शीश है
बस शिव ही शिव है
कतरा क़तरा
कतरा क़तरा मेरे ठन्डे अश्क,
कतरा क़तरा तेरी बहकी चाहत
कतरा क़तरा मेरी उलझी आहें,
कतरा क़तरा तेरी सांस की आहट
कतरा क़तरा तेरे जिस्म की खुशबू,
क़तरा क़तरा मेरे रूह के हिस्से
कतरा क़तरा मेरे लहू की रंजिश,
क़तरा क़तरा तेरे प्यार के किस्से
कतरा क़तरा तेरी यादों का मंजर,
कतरा क़तरा मेरे कफ़न से रिश्ते
कतरा क़तरा मेरे पिघलते सपने,
क़तरा क़तरा इस मौत की किश्तें
अक्स
तेरी आँखों में दिखता है
मुझे अक्स अपना
किसी खामोश सागर सा
बैठा है किनारे पे
ये जो सुरमा लगा है
उस मैं कैद है काफ़िर इक
कभी आंसुओं से सूख जाता है
और कभी यादों में भीग जाता है
रातों में जो कभी देखूं
तो इक रौशनी दिखाई देती है
इन आँखों ने ही तो जैसे
सूरज को वो चमक उधार दी है
पलकों की खिड़की से
जब भी झांकता हूँ बाहिर
दिखती है मुझको अपनी
इक तस्वीर पुरानी, मैली सी
इस तस्वीर में ज़िंदा हूँ मैं
और ज़िंदा है इस अक्स की कहानी
कुछ उसकी ज़ुबानी
कुछ मेरी ज़ुबानी
रुख…
चिंगारियों की भीड़ मैं इक शोला उठा
किसी अधूरे गीत सी अंगड़ाई ली
और बेखुदी की ताल में बोला
चलो हवाओं के रुख बदलते हैं
आग बनने की आग दिल में
अपने पीले लहू में रंग भरने चला
चिंगारियां बोली, शोला है तो भड़केगा
थोड़ा जलेगा, और बुझ जायेगा
शोला कुछ कहते-कहते रुक गया
वापिस मुड़ा और जलने लगा
व्यूह रच कर अपने मन में
अग्नि मंथन को चला
चिंगारियों को छेड़कर
वो शोलों को भेदता
अपने आप से लड़ता वो कभी
कभी दर्द को नकारता
चोट खाया अधमरा सा
धुंधली सी मंज़िल के आईने को पोंछकर
अपनी आग को ज़िंदा रखता रहा
उस आग की चाह में
कहीं लौ उठी उम्मीद की
इक लपट बनी, प्रचंड हुई
वो चिंगारियां अब राख थी
ये शोला अब इक आग था
ग़म
इन बारिशों से जब बेज़ार हुआ दिल
मेरी आँखें सूख गयी
और ख़ामोशी बोलने लगी मुझसे
मेरे ग़म का हाल
ये जो ग़म है मेरा
बहुत परेशान है
कुछ समय से बस
चलता ही जा रहा है
थक गया है ये ख़ुशी
की बाट तकते तकते
आँखों के नीर सा
नमकीन हो गया है
ख़ुशी गयी है कहीं परदेस
किसी परदेसी के मुस्कराहट में कैद
वक़्त के तस्सवुर में जैसे
किसी पहले मौसम का प्यार हो गयी है
धुप के अंचल में
इकतरफा समां गया ग़म
पुराने सामान सी
हालत हो गयी है
उसकी बेबसी देख मैं रोया, फिर मुस्कुराया
किसी पागल सी कैफियत हो गयी है