मद्धम आँच पर धीमे धीमे
सहमे सकुचे कर नयन नयन
तुम जब पर परवाज़ पकड़ती हो…
अदरक के टुकड़े बाँच बाँच
चीनी के मीठे काँच काँच
तुम अधरों पे जब धरती हो…
किसी श्वेत झील के झरने में
जब श्याम रंग को त्याग त्याग
तुम कत्थई रंग पकड़ती हो…
सब घोल वोल के हृदय विकार
और छान के सारे कपट वपट्
प्याले में रपट उतरती हो…
हृदयहारिता सी तुम लगती हो
मुझे कविता सी तुम लगती हो ।।