मेरी कुछ आवारा नज़्में घूमतीं है दिनभर, धुत्त लड़खड़ाती
जैसे पुरानी दिल्ली का रिक्शेवाला कोई सवारी ढूँढता हो
कोई ग़ज़ल मिल जाए कहीं
किसी बुढ़िया के चश्मे से झाँकती
या किसी तंग गली में बच्चों संग सरपट दौड़ लगाती
या फिर किसी पुरानी ढोलक पर पैर पटकती
शायद किसी चाय के प्याले में ख़्वाब सुलगाती
ग़ज़ल भी तो नज़्म ही है, अवारगर्दी फ़ितरत है उसकी