वाह रे उपरवाले

पंडित पादरी मौलवी कर रहे धर्म प्रचार
चोर लूटेरे सेवक हैं, नेता पहरेदार
सब जेबें भरन लगे, नोट भयो भरमार
वाह रे उपरवाले तेरी महिमा अपरम पार

पियूष कौशल

गहरा कोहरा है

गहरा कोहरा है
नुक्कड़ वाले मोड़ पर आज भी बैठी है वो बुढ़िया,
खाली आँखों से आसमान टटोलती
हाथों में उसके लकीरे न होंगी शायद
चेहरे पर ही वक़्त ने जैसे नक़्क़ाशी जड़ दी हो
उस चाबी वाले गुड्डे मे चाबी भर मुस्कुराती
दिवाली पर दिलवाया था उसे, बड़ा खुश हुआ था
मेरी अच्छी माँ कहकर खूब ज़ोर से गले लगाया था
वक़्त चाबी भरना भूल गया शायद
वो चलते चलते रुक गया
न कदम उठा न हाथ बढ़ा – अँधेरा हुआ था तब
आज कोहरा है, गहरा कोहरा है

पियूष कौशल (शिव)

फासले

करवटें लेती रातों के
ख्वाहिशों भरे फासले

समय से छूटे हुए चाहत के
ज़हमतों के वो फासले

ओट लेती सलवटों के
गुनगुनाते हुए फासले

जुबां पे लड़खड़ाते हुए प्यार के
इकरार के वो फासले

चाँद के और चांदनी के
रौशनी भरे वो फासले

वो उल्फत के धुओं में
दिल जलाते हुए फासले

नहाकर पाक लफ़्ज़ों में
इल्म-ऐ-जेहन के वो फासले

सिमट के होटों पे
सिहरती सांस के वो फासले

ज़िन्दगी के परवान पर
कभी न ख़त्म होते फासले

तेरे और मेरे और
हमारे वो फासले

वो फासले…

ये ज़िन्दगी

कहीं कुछ हो की
तक़दीरें बदल जाएँ ये अश्क़ों की …

दिल में तलब है की
मस्जिदें बदल जाएँ ये सजदों की ..

क्या हो तुम और क्या हैं हम ..
ग़म ही में ढूँढ़ते है ग़म..

बात तब हो की जब मौत भी हो ठहाकों की
करें जज़्बात का सौदा
या अपने आप का सौदा

नज़्म तब हो की
कुछ बातें सुनी जाए ये जज़्बों की

 खफा खुद से या खुद-आ से
लहर सी इस धरा से
या उफनते आसमान से

कहें कुछ भी मगर ये सब
मेहेरबानी है रस्मों की

लडखपन मैं सरकती धुप
टहलती नींद बचपन की

वो किस्से मोहब्बत के,
वो चेहरे पे चमक सी अलग

करम उसके भरम उसके
फिसलती रेत वक़्तों की

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