आरज़ू

मैं उठा सुबह तो दस्तक पे थी एक आरज़ू
सांस लेती मुस्कुराती कुछ ज़रा बेशर्म सी

ख़्वाबों के बीच कुछ गिरता हुआ पकड़ा गए
पलकों के परदे से जो दो नयन खुले

देख सपनो को हकीकत में निखरता वो नयन
कुछ ज़रा घबरा गए, कुछ ज़रा भरमा गए

ख्वाब देखा था यूँ कहकर दिल को समझाया ज़रा
आँख मूंदी, नींद थामी और ज़रा अंगड़ाई ली

मंज़िलों से रूबरू हो कर भी में न हुआ
आदतों ने इस कदर कुछ बुन लिए थे फासले

नींद की आगोश में देखा फिर से उस ख्वाब को
सिलसिले फिर से वही कश्मकश के आ गए

 

 

फासले

करवटें लेती रातों के
ख्वाहिशों भरे फासले

समय से छूटे हुए चाहत के
ज़हमतों के वो फासले

ओट लेती सलवटों के
गुनगुनाते हुए फासले

जुबां पे लड़खड़ाते हुए प्यार के
इकरार के वो फासले

चाँद के और चांदनी के
रौशनी भरे वो फासले

वो उल्फत के धुओं में
दिल जलाते हुए फासले

नहाकर पाक लफ़्ज़ों में
इल्म-ऐ-जेहन के वो फासले

सिमट के होटों पे
सिहरती सांस के वो फासले

ज़िन्दगी के परवान पर
कभी न ख़त्म होते फासले

तेरे और मेरे और
हमारे वो फासले

वो फासले…

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